शहंशाह मिर्ज़ापुरी ने सुनाया क़ब्र में मौला के आने पर ख़ुशी का अशआर, महफ़िल ए शुआ ए नूर में शायरों का जलवा
प्रयागराज में आयोजित महफ़िल ए शुआ ए नूर के 72 वें दौर में शहंशाह मिर्ज़ापुरी समेत कई शायरों ने अपने अशआर से महफ़िल को रौशन किया। शहंशाह मिर्ज़ापुरी का क़ब्र में मौला के आने पर 'मरने की खुशी' वाला अशआर खासा चर्चा में रहा।
जैनुल आब्दीन
प्रयागराज: प्रयागराज में बख्शी बाज़ार स्थित मस्जिद क़ाज़ी साहब में आयोजित महफ़िल ए शुआ ए नूर के 72 वें दौर में शायरों ने अपने बेहतरीन अशआर से महफ़िल को गुलज़ार कर दिया। इस महफ़िल का आयोजन ज़ायर हुसैन द्वारा क़ायम अन्जुमन ग़ुन्चा ए अब्बासिया ने किया था, जिसमें शहंशाह मिर्ज़ापुरी का योगदान विशेष रूप से चर्चा में रहा। उन्होंने अपने प्रसिद्ध अशआर "जब से मैं सुना क़ब्र में खुद आते हैं मौला, जीने से ज़्यादा मुझे मरने की खुशी है" से समां बांध दिया, जो श्रोताओं के दिलों में गूंज उठा।
इस मौके पर शहीर रालवी, इरफान लखनवी, हाशिम बांदवी समेत कई अन्य शायरों ने भी अपने कलाम पेश किए। शायर इरफान लखनवी ने अपने अशआर में खुदा और ज़हरा की तारीफ़ की, जबकि हाशिम बांदवी ने दो जहान की रचना में जनाबे फात्मा ज़हरा का अहम स्थान रेखांकित किया।
महफ़िल में आयी शायरी की लहर ने सभी उपस्थित श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इस मौके पर ज़ाकिर ए अहलेबैत रज़ा अब्बास जैदी ने इस्मत ए ज़हरा की यौमे पैदाइश पर विस्तार से रोशनी डाली। शायरों के अलावा, मौलाना जवादुल हैदर रिज़वी, मौलाना अफ़ज़ल अब्बास, मौलाना ज़रग़ाम हैदर जैसे नामी उलमाओं ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए।
महफ़िल का आयोजन न केवल धार्मिक महत्व को उजागर करने वाला था, बल्कि उर्दू शायरी की परंपरा को भी जीवित रखने का एक अहम अवसर था। शायरों की प्रस्तुति ने एक अद्भुत माहौल बनाया, जो दीवानी और धार्मिक भावना दोनों से प्रेरित था।
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