शाह बानो की गूंज: 40 साल बाद फिर उठेगा न्याय का सवाल, इस बार सिनेमा के जरिए

शाह बानो केस पर आधारित फिल्म ला रही है 40 साल पुराने न्यायिक संघर्ष को फिर से जनमानस के सामने

अप्रैल 23, 2025 - 11:43
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शाह बानो की गूंज: 40 साल बाद फिर उठेगा न्याय का सवाल, इस बार सिनेमा के जरिए
शाह बानो की गूंज: 40 साल बाद फिर उठेगा न्याय का सवाल, इस बार सिनेमा के जरिए

#शाहबानो केस की गूंज एक बार फिर देश की चेतना को झकझोरने आ रही है — इस बार सिनेमा के पर्दे पर। सुप्रीम कोर्ट के 1985 के ऐतिहासिक फैसले को 40 साल पूरे हो रहे हैं, और इस मौके पर एक नई हिंदी फिल्म उस मुकदमे को फिर से ज़िंदा करने की तैयारी में है, जिसने देश की राजनीति, धर्मनिरपेक्षता और लैंगिक न्याय की परिभाषा बदल दी थी।

निर्देशक सुपर्ण वर्मा, जिन्होंने हाल ही में "द फैमिली मैन" जैसी सीरीज़ के लिए सराहना पाई है, अब एक संवेदनशील विषय पर बड़ी सिनेमाई परियोजना का हिस्सा हैं। फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में होंगी यामी गौतम, जो पहले "आर्टिकल 370" जैसी सशक्त फिल्म में नजर आ चुकी हैं, और इमरान हाशमी, जो इस बार एक गंभीर वकील की भूमिका में दिखेंगे।

फिल्म का विषय सिर्फ एक महिला की लड़ाई नहीं, बल्कि भारत के संविधान की आत्मा की तलाश है।

यह कहानी 62 वर्षीय शाह बानो बेगम की है, जिनका 1978 में उनके वकील पति मोहम्मद अहमद खान ने तीन तलाक देकर साथ छोड़ दिया था। शाह बानो ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ते की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि धारा 125 धर्म से ऊपर है और सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होती है। अदालत ने शाह बानो को गुज़ारा भत्ता दिए जाने का आदेश दिया। लेकिन इस निर्णय पर देश में तीखी धार्मिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया हुई। परिणामस्वरूप राजीव गांधी सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी कर दिया।

फिल्म सिर्फ इतिहास नहीं दोहराएगी — वो सवाल भी उठाएगी जो आज भी अनुत्तरित हैं। क्या समान नागरिक संहिता महज चुनावी नारा है या एक संवैधानिक ज़रूरत? क्या लैंगिक न्याय और धार्मिक पहचान एक-दूसरे से टकराते रहेंगे?

फिल्म की शूटिंग हाल ही में लखनऊ में पूरी हुई है और इसे जल्द ही बड़े पर्दे पर लाया जाएगा। माना जा रहा है कि यह फिल्म न केवल एक ऐतिहासिक केस को जनमानस में पुनर्जीवित करेगी, बल्कि समाज को यह सोचने पर मजबूर करेगी कि क्या कानून सबके लिए बराबर है, या कुछ अपवाद अब भी बाक़ी हैं?

चार दशक बाद, शाह बानो की गूंज फिर लौट रही है—इस बार एक औरत की आवाज़ नहीं, बल्कि एक राष्ट्र की आत्मा बनकर।

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