"मेंहदी के संग बहा लहू: पहलगाँव में टूटी उम्मीदों की वादी"
कश्मीर के पहलगाँव में नवविवाहित हिंदू युवक की हत्या से इंसानियत, सुरक्षा और एकता पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं।

हनीमून का सपना आँखों में लिए एक नवविवाहित जोड़ा जब वहाँ पहुँचा था, तो शायद उसने सोचा भी नहीं था कि वो धरती का स्वर्ग आख़िरी मंज़िल बन जाएगा। कुछ पल पहले तक जो वादी हँसी और तस्वीरों से गूंज रही थी, वहां अब चीखों का सन्नाटा था।
एक गाड़ी रुकी, हथियारबंद नकाबपोश उतरे। पहले पूछा गया नाम—फिर पहचान। और फिर बिना एक पल रुके, गोली चली।
गुलाबी मेंहदी से सजे हाथ अब खून में सने थे। सपनों का संसार, पलक झपकते ही बिखर गया। जो यात्रा प्रेम और खुशी की थी, वह अब एक अनकही त्रासदी की कहानी बन गई।
राजस्थान से आया एक नवविवाहित दंपत्ति भी उन्हीं पर्यटकों में था। दोनों ने अभी पांच दिन पहले ही शादी की थी। वो अपने हनीमून के लिए कश्मीर आए थे। लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। आतंकियों ने गाड़ी रोकी, नाम पूछा, पहचान की और फिर गोली मार दी। युवक हिन्दू था। बस यही उसके मरने की वजह बन गई। सिर में गोली लगी। मौके पर ही दम तोड़ दिया। उसकी पत्नी, जिसके हाथों की मेंहदी अभी भी गीली थी, स्तब्ध खड़ी थी। शोक से ज़्यादा वो एक अनकहे डर में जमी हुई थी – जैसे समय वहीं थम गया हो।
ये हत्या नहीं, धार्मिक घृणा है
यह सिर्फ एक आतंकी हमला नहीं था। यह योजनाबद्ध हत्या थी – एक सोच के तहत, एक धर्म के आधार पर। आज आतंकवाद महज़ क्षेत्रीय या वैचारिक लड़ाई नहीं रह गया है। यह अब धार्मिक पहचान को मिटाने का एक उपकरण बन चुका है। यह हत्या बताती है कि कुछ तत्व अब यह तय कर चुके हैं कि कौन जिएगा, कौन मरेगा – और यह फ़ैसला नाम पूछकर किया जाएगा।
क्या यही इंसानियत है? क्या यही ‘कश्मीरियत’ है, जिसके नाम पर हम वर्षों से शांति की दुहाई दे रहे हैं?
जब शहीद की पत्नी की चीखें खामोश हो गईं
सोशल मीडिया पर उस पत्नी की तस्वीर वायरल हुई, जो अपने पति के शव को निहार रही थी। न चीख, न रोना, न प्रतिरोध। बस एक स्थिर मौन – जो पूरी व्यवस्था पर सबसे कठोर आरोप बन गया। उस मौन में एक सवाल छुपा है: “हमने क्या ग़लत किया?” क्या एक जोड़े का कश्मीर आना, उसकी सुंदरता देखना, उसकी वादियों से प्यार करना अब गुनाह बन चुका है?
हमें समझना होगा कि इस तस्वीर में केवल एक महिला नहीं थी, बल्कि उस पूरे राष्ट्र की आत्मा थी – जख़्मी, असहाय और शर्मसार।
वो आँखें सिर्फ अपने पति के शव को नहीं देख रहीं थीं, बल्कि उस व्यवस्था को घूर रही थीं, जिसने सुरक्षा का वादा किया था। वो मौन सिर्फ शोक नहीं था—वो सवाल था।
"क्या हम वाकई सुरक्षित हैं?"
"क्या अब प्यार करना, घूमना, नाम बताना भी जुर्म है?"
उस तस्वीर में सिर्फ एक विधवा नहीं थी, वहाँ हमारी असफलताएं थीं। हमारी चुप्पी थी। वो लहू, जो उसके सपनों के साथ बहा, उस पर हम सबके हाथों के निशान थे—हमारे अनदेखे अलार्म, हमारी खोखली संवेदनाएँ, और हमारी अधूरी नीतियाँ।
सुरक्षा की विफलता और प्रशासन की संवेदनहीनता
हर हमले के बाद सरकार की ओर से एक तैयार स्क्रिप्ट आती है – निंदा, मुआवज़ा, जाँच। लेकिन जवाबदेही कहीं नहीं होती। क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि घाटी में आतंकियों को खुलेआम चलने-फिरने की छूट कैसे मिलती है? वे नाम पूछकर कैसे किसी को गोली मार सकते हैं और फिर बच निकलते हैं?
क्या पर्यटन सीजन में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती नहीं होनी चाहिए? क्या जम्मू-कश्मीर प्रशासन को यह नहीं पता कि ऐसे हमले पर्यटन, अर्थव्यवस्था और भारत की एकता – तीनों पर हमला करते हैं?
मानवाधिकार या आतंक के अधिकार?
जब भी भारत आतंक के ख़िलाफ़ सख़्ती दिखाता है, तो मानवाधिकार की दुकानें खुल जाती हैं। दिल्ली, लंदन, न्यूयॉर्क – हर जगह के तथाकथित बुद्धिजीवी अचानक ‘संवेदना’ से भर जाते हैं। लेकिन जब किसी हिंदू नागरिक को सिर्फ उसके नाम के कारण सिर में गोली मारी जाती है, तब यही आवाज़ें खामोश हो जाती हैं।
यह हमला पूरे भारत पर है।
पहलगाँव में हुई इस निर्मम हत्या को अगर हम केवल "एक और आतंकी वारदात" मानकर भूल जाएँ, तो हम न केवल पीड़ित के साथ, बल्कि अपने राष्ट्र के साथ भी विश्वासघात कर रहे हैं। यह हमला उस विचार पर है, जो भारत को एक राष्ट्र बनाता है—विविधता में एकता।
यह बताने की कोशिश है कि तुम्हारा धर्म, तुम्हारी भाषा, तुम्हारा नाम अब तुम्हारी मौत की वजह बन सकता है। यह हमले उस भरोसे को तोड़ने की कोशिश हैं, जो हर नागरिक को यह यकीन दिलाता है कि देश के किसी भी कोने में वह सुरक्षित है।
अगर हमने इसका जवाब सिर्फ मोमबत्तियाँ जलाकर, "प्रार्थना" करके या ट्विटर पर #Justice लिखकर दिया, तो हम न केवल कायर बनेंगे, बल्कि अगली त्रासदी के लिए अनजाने में रास्ता भी तैयार करेंगे।
पाकिस्तान का रोल और वैश्विक चुप्पी
हमेशा की तरह, इस हमले के पीछे जिस आतंकी संगठन का नाम आया – ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ – वह लश्कर-ए-तैयबा का ही नया अवतार है। और इसकी जड़ें पाकिस्तान में हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान अभी भी ‘आतंकवाद का शिकार देश’ बना बैठा है।
कब तक हम अपने नागरिकों की रक्षा नहीं कर पाएँगे?
कब तक हम आतंकी हमलों पर केवल मोमबत्तियाँ जलाते रहेंगे?
शब्द नहीं, कार्रवाई चाहिए। शोक नहीं, उत्तरदायित्व चाहिए। क्योंकि इस बार सवाल सिर्फ नाम का नहीं है, यह इंसानियत का प्रश्न है।
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