कृतज्ञता, एक दैवीय गुण: जयेश भाई पटेल
कृतज्ञता, एक दैवीय गुण: जयेश भाई पटेल
आर एल पाण्डेय
अहमदाबाद।यह शब्द जयेश भाई पटेल मैनेजिंग ट्रस्टी साबरमती आश्रम अहमदाबाद ने व्यक्त किया है।कृतज्ञता अर्थात दूसरों द्वारा किए गए उपकार, सहायता अथवा सेवा का स्मरण रखना और उनके प्रति आभार की भावना रखना । कृतघ्नता अर्थात इस भावना का अभाव ।
कृतज्ञता नम्रता की प्रतीक है। यह आत्मा का एक सहज गुण है। हमारी चेतना भौतिकतावाद की परतों से जितनी कम ढकी होगी उतना अधिक हम इस गुण का अनुभव एवं प्रदर्शन कर सकेंगे । कृतज्ञ व्यक्ति प्रशंसा का तथा कृतघ्न व्यक्ति केवल निंदा का पात्र बनता है इस संसार में भी देखा जाता है कि भौतिक दृष्टि से किसी से सहायता लेने के बाद यदि हम कृतज्ञ रहते हैं तो हमारी सराहना की जाती है फिर कल्पना कीजिए कि हमें अपने उन आचार्य ,गुरुजनों, साधु ,श्री भगवान तथा शास्त्र का कितना कृतज्ञ होना चाहिए जो हमें इस भौतिक संसार से मुक्त करके आध्यात्मिक धरातल पर स्थापित करते हैं ।
जिस प्रकार समुद्र में डूब रहा व्यक्ति पूरी तरह असहाय एवं बाह्य सहायता पर अवलंबित रहता है उसी प्रकार इस संसार सागर से मुक्त होने के लिए हमें सहायता की आवश्यकता होती है। यदि सहायता प्राप्त करके हम कृतज्ञ रहते हैं ,तो हम प्राप्त हुए उपहार को सजोकर रख सकेंगे अन्यथा वह अधिक समय हमारे पास नहीं टिक सकेंगे ।
हमें केवल भक्ति क्षेत्र में प्राप्त हुए उपहार के प्रति कृतज्ञ नहीं रहना चाहिए अपितु बाह्य रूप से सांसारिक कार्यों के प्रति भी रहना है । हमें उन लोगों के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए जिनकी सहायता से हमें भोजन, वस्त्र तथा निवास प्राप्त होता है ।हमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए जो हमें औषधीय ,खनिज ,लकड़ी, मिट्टी, धातु, तेल इत्यादि देती है ।यदि हम वृंदावन, जगन्नाथ पुरी जैसे धाम जा रहे हैं तो हमें भारतीय रेलवे का कृतज्ञ होना चाहिए जिसकी सहायता से हमारी यात्रा संभव होती है।
आप कहेंगे कि अरे ! मैंने तो इन सब वस्तुओं का मूल्य चुका दिया है, फिर कृतज्ञ रहने की क्या आवश्यकता है ? बिल्कुल सही कहा आपने! किंतु क्या हम ₹500 की गड्डी के ऊपर बैठकर वृंदावन पहुंच सकते हैं ? हम ₹100 देकर अनाज खरीदते हैं और उसे खाकर अपनी भूख मिटाते हैं ।किंतु क्या हम ₹100 का नोट खाकर भूख मिटा सकते हैं ?अतः हमें किसान का , वर्षा का, इंद्रदेव का ,यातायात के साधनों आदि के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए ।हमारे द्वारा दिया जाने वाला धन तो एक न्यूनतम मूल्य है। किंतु हमें हृदय से कृतज्ञ रहना चाहिए।
यह आवश्यक अथवा संभव नहीं है कि हम सहायता करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें ।कृतज्ञता हमारी चेतना का एक भाव है। हमारे हृदय में विराजमान परमात्मा हमारी भावनाओं से भली भांति परिचित रहते हैं ।वहीं परमात्मा दूसरों के हृदय में भी विराजमान है ।और वह हमारी भावनाओं को दूसरों तक पहुंचा देते हैं ।हां ,जब भी संभव हो हमें मौखिक रूप से अथवा व्यवहार द्वारा अपनी कृतज्ञता को अभिव्यक्त भी करना चाहिए।
कृतज्ञता का यह गुण भक्तों में सर्व प्रमुख पाया जाता है । एक समय श्रील प्रभुपाद अपने गुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती के आविर्भाव दिवस पर एक प्रवचन में कहते हैं-
मुझे इस आंदोलन को गंभीरता पूर्वक लेने के लिए मानो बाध्य किया गया ।मुझे सपने आते कि भक्ति सिद्धांत सरस्वती मुझे बुला रहे हैं ।चलो मेरे साथ आओ ।यह देखकर मैं भयभीत हो जाता । अरे !अब क्या होगा ?मुझे अपना पारिवारिक जीवन त्यागना होगा। भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर मुझे बुला रहे हैं। मुझे संन्यास लेना होगा ।और मैं बहुत डर जाता ।मैंने अनेक बार यह सपना देखा जिसमें वह मुझे पुकारा करते तो यह उन्हीं की कृपा थी कि जिसके कारण मुझे अपना पारिवारिक जीवन एवं व्यवसाय त्यागने के लिए बाध्य ही होना पड़ा और वह जैसे तैसे मुझे खींचकर इस संदेश का प्रचार प्रसार करने के लिए ले आए।
तो यह एक स्मरणीय दिन है।मैं उनकी इच्छा को पूरी करने का तुच्छ प्रयास कर रहा हूं ।और तुम सब इसमें मेरी सहायता कर रहे हो ।तो मैं तुम सब का बहुत आभारी हूं ।वास्तव में तुम सब मेरे गुरु महाराज के प्रतिनिधि हो, क्योंकि तुम मेरे गुरु महाराज का आदेश पालन करने में मेरी सहायता कर रहे हो ।बहुत-बहुत धन्यवाद।
अंतिम वाक्य कहते कहते श्रील प्रभुपाद का कंठ अवरुद्ध हो जाता है और वे रोने लगते हैं । श्रील प्रभुपाद अपने गुरु के प्रति कृतज्ञ थे कि उन्होंने प्रभुपाद को भागवत संदेश के प्रचार कार्य में प्रेरित किया और वह अपने शिष्यों के प्रति कृतज्ञ थे कि उन्होंने गुरु आज्ञा को पूरा करने में उनकी सहायता की।
वस्तुतः यह कृतज्ञता का भाव ही हमारे आध्यात्मिक जीवन का पोषण करता है और श्रीकृष्ण के ह्रदय को आनंद प्रदान करता है।
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