संकल्प शुद्ध होना चाहिए,शुद्ध संकल्प सिद्ध होने से आत्मा को बल मिलता है:रमेश भइया
आर एल पाण्डेय
लखनऊ। रमेश भइया राष्ट्रीय सूत्रधार विनोबा विनोबा विचार प्रवाह ने कहा कि विनोबा विचार प्रवाह गीता प्रवचन अध्याय चौथा कर्म अकर्म और विकर्म विकर्म का अर्थ है चित्तशुद्धिकारक कर्म, और अकर्म का अर्थ है आत्मज्ञान।कर्म के साथ विकर्म जोड़ने से अकर्म निष्ठा प्राप्त करनी है। गीता तो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखने की बात कहती है। ज्ञानी का लक्षण बताया कि उसे कामना तो होती ही नहीं, संकल्प भी नही होता।
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संकल्प मूल शक्ति है जिससे काम आदि उत्पन्न होते हैं। गीता ने संकल्प को सदैव त्याज्य नहीं कहा है। संकल्प बुरी चीज नहीं है। आत्मा को उपनिषदों ने तो सत्यकाम: सत्यसंकल्प: कहा है। विचार बुद्धिगत शक्ति है जबकि प्रेम ह्रदयगत शक्ति है, और संकल्प चित्त की शक्ति है। आत्मशक्ति के लिए,चित्तशुद्धि के लिए संकल्प को शुद्ध रखना आवश्यक है।
बाबा विनोबा ने संकल्प के संदर्भ में बताया है। संकल्प को शुद्ध,परिपूर्ण और मजबूत बनाने के लिए पहले छोटे छोटे संकल्प करने चाहिए। संकल्प पूरा होने पर एक बल की अनुभूति होती है। इसी को आत्मविश्वास कहते हैं। संकल्प को मोह में आकर आगे बढ़ाना ही आसक्ति का लक्षण है। और संकल्प का तोड़ना कमजोरी का लक्षण है। गांधी जी के उपवास के समय कुछ भाइयों ने पहले छोटा उपवास करने का संकल्प किया था,वह पूरा होने पर उसे और बढ़ाना चाहते थे। परंतु जब बाबा से पूंछा गया तो बाबा ने उन्हें रोका। संकल्प कर लेने के बाद तोड़ना ठीक नहीं ऐसे ही पूर्ण होने पर बढ़ाना भी ठीक नहीं।
हां आत्मविश्वास होने पर दूसरी बार बड़ा संकल्प करना, फिर उससे भी बड़ा संकल्प करना उचित लगता है।
संकल्प शुद्ध होना चाहिए,शुद्ध संकल्प सिद्ध होने से आत्मा को बल मिलता है। संकल्प अच्छा हो या बुरा , सिद्ध आत्मा की शक्ति से ही होता है। परंतु सत_संकल्प से आत्मा की उन्नति होती है ठीक वैसे असत_ संकल्प होने पर आत्मा की अधोगति भी होती है। बाबा ने कहा कि मिसाल के तौर पर सिकंदर बादशाह ने विश्वविजय करने का संकल्प किया था, और उस समय के संसार पर उसने विजय पा भी ली थी।परंतु मृत्यु के समय वह रोया और उसे अपने कार्य पर महाग्लानि हुई। विवेकपूर्ण विचार करके ही संकल्प करना चाहिए। इसीलिए गीता कहती है कि आत्मा ही हमारा बंधु है और आत्मा ही हमारा शत्रु है।
जैसे जैसे संकल्प सिद्ध होते जाते हैं,वैसे वैसे तृष्णा बढ़ती भी जाती है। आवश्यकता पड़ने पर ही संकल्प करना चाहिए आत्मशक्ति की परीक्षा के लिए नहीं ।आत्मा की अनंतशक्ति का आभास तो श्रद्धा से ही होना सही है।
बाबा ने समझाने के लिए पवनार के एक 75 वर्षीय ग्राम सेवा के लिए आए वृद्ध सज्जन का उदाहरण भी दिया। बड़े सत्पुरुष और सेवाप्रवण थे। उन्होंने ग्रामसेवा के अलावा ध्यान का भी।संकल्प लिया। एक दिन सुबह बैठे तो दोपहर तक ध्यान में बैठे रहे। इससे सेवाव्रत भी अच्छी तरह से पूरा नहीं हो पा रहा था। बाबा ने उन्हें बताया कि ध्यान का भी स्वाद होता है। निश्चित समय से अधिक समय तक ध्यान में लीन रहना ,उसका रस भोगना ही है।आपका अस्वाद्व्रत भंग हो रहा है। तब वे समझ गए।
संकल्प किया चित्त से जाता है और पूर्ति आत्मशक्ति से होती है। ब्रम्हचर्य के शुद्ध संकल्प का निश्चय करने से पहले यह सोंच लेना चाहिए कि इसके लिए जीवन में कौन कौन से परिवर्तन करने होंगें। क्या खाना पीना होगा, भोग की दृष्टि से फूल को भी।सूंघना नहीं होगा।तब संकल्प सिद्ध होगा। इससे आत्मा की शक्ति बढ़ेगी। और वाणी की सिद्धि भी प्राप्त होगी। उपनिषद में तो यहां तक लिखा है कि ऐसा मनुष्य जो कहेगा वह होगा ही।यह आत्मविश्वास नहीं आत्मनिष्ठा है। कोई भी नीतियुक्त कार्य उसके लिए असंभव नहीं। एक स्थिति ऐसी भी आती है कि संकल्प करना ही नहीं होता,उसके सारे कार्य सहज हो जाते है।
ज्ञानी कर्म की आयोजना में नहीं पड़ता। ज्ञानी से संगठन नहीं बन सकता। वह जैसे जैसे आत्मज्ञान की ओर बढ़ता है उसकी संगठन की वृत्ति कम होती जाती है। राजस कर्म को गीता बहुलायासाम कहती है। यानी कर्म में बहुत दौड़ धूप करनी पड़ती है। जबकि सात्विक कर्म में कृत्रिम संगठन की जरूरत नहीं होती है।ज्ञानी मंत्र देता है,तंत्र स्वयं मंत्र के पीछे पीछे आ जाना चाहिए,तंत्र का विस्तार करना तत्वदर्शी का काम नहीं होता है। अन्यथा संगठन की दृष्टि से परोपकारी ,सेवाभावी,संस्थाएं खड़ी होती हैं । उनको चलाने के लिए कई प्रकार का परिग्रह करना पड़ता है।यद्यपि वह समाजसेवा की दृष्टि से ही किया हुआ परिग्रह है,फिर भी वह अधिक होने से हानिकारक होता है। आवश्यकता से अधिक परिग्रह होना ही चोरी है।फिर पुलिस,सैन्य शासनतंत्र की परंपरा आती है। बाबा ने कहा सार रूप में देखा जाए तो संगठन में गुण कम दोष अधिक हैं।
गीता में भगवान बताते हैं कि ज्ञानी कर्म करता है,यज्ञ के लिए, समाजसेवा के लिए । वह जो भी करता है ज्ञान के प्रकाश के लिए। कोई पुस्तक भी कंपोज करेगा तो उसकी दृष्टि अक्षरों पर रहेगी,अर्थ पर नहीं। वह कर्म के शरीर को देखता है, जबकि ज्ञानी कर्म की आत्मा को देखता है। वह हर काम को ज्ञान की दृष्टि से देखता है।उसके लिए ज्ञान और भाव प्रधान है, आकार का महत्व नहीं। फिर अंत में श्लोक 24 में भगवान ने कह दिया कि ज्ञानी सारी कर्म प्रक्रिया ब्रम्ह दृष्टि से देखता है,यानी उसका पूरा का पूरा जीवन उपासनामय बन जाता है।
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